मनोज मुंतशिर कविता माँ

मनोज मुंतशिर कविता माँ

हिसाब लगा के देख लो 
दुनिया के हर रिश्ते में कुछ अधूरा आधा निकलेगा
एक मां का प्यार है 
जो दूसरों से 9 महीने से ज्यादा निकलेगा।

मनोज मुंतशिर कविता माँ
लोग तारीफे करते हैं मेरी कहते हैं सलीका है, तहजीब है,
अदब है मुझमें, जो कुछ होना चाहिए वो सब है मुझमें
शुक्रिया मां तेरी जादूगरी ने कमाल दिखा दिया।
कुदरत मिट्टी को चमकना नहीं सिखा पाई तूने सिखा दिया।
एक प्लेट में मिठाई के दो टुकड़े
तीन लोगों का परिवार
मुझे मीठा अच्छा नहीं लगता
मां यही कहती थी हर बार
पूरा बचपन मैंने उसके झूठ पर यकीन किया
जैसे “मुझे बाहर खाना पसंद नहीं, सिनेमा जाना पसंद नहीं, कांच तो सुहागन का श्रृंगार है चांदी की चूडिय़ां क्या करूंगी,
संदूक में सैकड़ों भरी हैं और साड़ियां क्या करूंगी?”
वो उतना ही मुस्कुराई जितना उसका दिल दुखा है
दुनिया की सबसे बड़ी झूठी है वो
पर कायनात का हर सच उसके सजदे में झुका है।
खुदा हर जगह मौजूद नहीं रह सकता था
इसलिए उसने मां बनाई
सैकड़ों बार सुनी है ये कहानी
लेकिन आगे की कहानी किसी ने नहीं सुनाई
आज मैं सुनाता हूं …
ऐसा नहीं कि मां को बना कर खुदा बहुत खुश हुआ या उसने कोई जश्न मनाया
सच तो ये है कि वो बहुत पछताया.. कब?
उसका एक एक जादू किसी और ने चुरा लिया वो जान भी नहीं पाया
खुदा का काम था मोहब्बत, वो मां करने लगी
खुदा का काम था हिफाजत, वो मां करने लगी
खुदा का काम था बरकत, वो भी मां करने लगी
देखते ही देखते उसकी आँखों के सामने कोई और परवरदिगार हो गया
वो बहुत मायूस हुआ, बहुत पछताया
क्योंकि मां को बनाकर खुदा बेरोजगार हो गया।
मनोज मुंतशिर कविता माँ
मां मैं तुझसे प्यार तो बहुत करता हूं
बस तेरे लिए वक्त नहीं निकाल पाता
बड़ा आदमी बनना है न मुझे तो बहुत कुछ सहना पड़ता है बर्दाश्त करना पड़ता है
तू समझ रही है ना…? वो बेचारी क्या समझेगी और क्या बताएगी
इतने सारे शब्द कहां से लाएगी?
मैं बताता हूं कभी पेड़ों से मत पूछना कि फल देने में वो क्या क्या सहते हैं
जिसने अपनी कोख से औलाद जन्मी हो उसे मत बताना
कि बर्दाश्त करना किसे कहते हैं
सोचो वो कष्ट जो भीष्म पितामह को शरशय्या पर मरने में हुआ था
बदन की सारी हड्डियां एक साथ चटक जाएं तो कितना दर्द होगा
बस वही दर्द तुम्हें पैदा करने में हुआ था।
मैं एक आम सा लड़का हूं कुछ अलग नहीं है मुझमें
लेकिन ये बात मेरी मां को कौन समझाए
मेरी तारीफ यूं करती है
जैसे मैं किसी मंदिर में रखी हुई मूरत हूं
मेरे माथे पर काजल का टीका यूँ लगाती है
जैसे मैं दुनिया में सबसे खूबसूरत हूं
मुझे रब ने रियासतें नहीं दी, बादशाहतें नहीं दी फिर भी उसको माफी है
मैं अपनी मां का राजा बेटा हूं बस यही काफी है
बड़ी भोली हैं मां पूरी दुनिया में कहती फिर रही है
सच मेरा ख्वाब हो गया
मेरा बेटा कामयाब हो गया
अब उसे कौन बताए कि मैंने तो बहुत पहले बुलंदियों के पायदान छू लिए थे
जब पहली बार उसने मुझे बाहों में ले के उछाला था
मैंने तो उसी दिन सातों आसमान छू लिए थे।
मां का दिल ममता का मंदिर है
मोहब्बत का खजाना है
मां का दिल ये है, मां का दिल वो है,
अरे छोड़ो भी ये फिल्मी बातें
किसने देखा है मां का दिल..?
मैंने तो नहीं देखा… हां मैंने उसके हाथ जरूर देखें हैं
वही हाथ जो मेरे लिए रोटियां बनाते हुए कई बार तवे पर जले हैं
वही हाथ जो मेरी नन्ही उंगलियां थाम के बरसों बरस चलें हैं
मुझे लिखना सिखाते हुए जिन हाथों पर पेंसिल की कालिख चढ़ जाती थी
और मेरी शर्ट के बटन टांगते हुए जिनमें सुई गड़ जाती थी वहीं हाथ जो तकिया बन कर मेरे सिरहाने सोते थे
और मुझे एक थप्पड़ मार के खुद 10 बार रोते थे
देखो जरूरी नहीं है तुम्हारा श्रवण कुमार होना
मां के पैर आँसुओं से धोना
पर जिन हाथों की झुर्रियां तुम पर कर्ज़ हैं
रोज सोने से पहले वो हाथ चूम के सोना।
मनोज मुंतशिर कविता माँ
जो हर वक्त आसपास रहे वो अक्सर नजर नहीं आता
मां के साथ भी यही होता है
पता नहीं कब घर के किसी कोने में खो जाती है
वो इतना दिखती है कि दिखना बंद हो जाती है
तुमने आखिरी बार उसे आँख भरके कब देखा था?
कब उसकी साड़ी या सूट की तारीफ की?
कब उसकी चूड़ियों का रंग नोटिस किया?
कब उसके नेल पॉलिश पर अपनी राय दी?
आखिरी बार कब कहा था कि मां जंच रही हो बहुत प्यारी लग रही हो?
तुम क्या सोचते हो उसे सिर्फ तुम्हारा कमरा सजाना और तुम्हारा स्वेटर बुन अच्छा लगता है
माँ भी कभी लड़की थी दोस्त
और हर लड़की की तरह उसे भी तारीफ सुनना अच्छा लगता है
अभी देर नहीं हुई है जाओ तुम्हारी मां से खूबसूरत दुनिया की कोई लड़की हो नहीं सकती
ये सच उसे आज ही बताओ।
एक दिन मैं खुदा से उलझ पड़ा।
तुझे तेरी रहमत का वास्ता मैं अपनी मां के अहसान चुका दूं।
दिखा कोई रास्ता खुदा ज़ोर से हंसा
और बोला उसके अहसान चुकाएंगे
जिसके सपने तुम्हारी आँखों में खो गए।
शायद तुमने सुना नहीं।
मां के एक आँसू का मूल्य चुकाने में बादशाहों के खजाने खाली हो गए।
बहुत मसरूफ हो तुम समझता हूं
घर दफ्तर कारोबार और थोड़ी फुर्सत मिली तो दोस्त यार
और ज़िन्दगी पहियों पर भागती है।
सुनो आज दो घड़ी बैठो उसके साथ
छेड़ो कोई पुराना किस्सा पूछो कैसे हुई थी पापा से पहली मुलाकात
दोहरावो उसके गुजरे जमाने,
बजाओ मोहम्मद रफी के गाने
जो करना है आज करो कल सूरज सर पे पिघलेगा
तो याद करोगे कि मां से घना कोई दरख़्त नहीं था
इस पछतावे के साथ कैसे जीओगे
कि वो तुमसे बात करना चाहती थी
और तुम्हारे पास वक्त नहीं था।
ठहर के ये सोचने का वक्त कहाँ है कि माँ आज भी तुम्हारे इन्तजार में जागती है।
मनोज मुंतशिर कविता माँ

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