किसानों पर दर्द भरी कविता| मैथिलीशरण गुप्त की कविता – किसान
हेमन्त में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
हेमन्त में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ
कामचोरी का संसार देख,
आँखे भी हैरान है,
परिश्रम की बात से भागते,
क्यों लोग विकास से अंजान है।
पहले पाठ में सीखेंगे हम,
जीवन की अनमोल विद्याएं।
संघर्ष का वह मार्ग चुनेंगे,
जो आए सफलता में काम।
दूसरे पाठ में सीखेंगे हम,
कठिनाइयों को आसान करना।
पत्थर हूँ मैं, कठोर हूँ मैं,
अपनी मजबूती में छिपा हूँ मैं।
मेरी कठिनाईयों को तुम समझ न पाओगे,
हर संघर्ष में बचपन से खड़ा हूँ मैं।
महिला, सशक्तिकरण की
ओर आगे बढ़ रही है,
हर एक क्षेत्र में वो सम्मान पा रही है।
जीवन के संघर्षों का नया मुकाम है वो,
अज्ञानता की अंधेरी दुनिया में,
ज्ञान का प्रकाश फैलाएं हम।
शिक्षा का महत्व समझाएं इन्सानों को,
उनके मन को चमकाएं नयी रोशनी के संग।
हर तरफ भागदौड़, हर तरफ अन्याय,
बचा हुई है सिर्फ़ कुछ मोमबत्ती रौशनी के लिए।
आज की दुनिया जैसी है, खो गई मानवता,
दिलों में उम्मीद की किरण जगाने की जरूरत है।
गुरु एक ज्योति है,
जो मन को रौशनी देती है,
ज्ञान की किरणें बिखेर,
अंधकार को दूर भगाती है।
क्या अजीब है ये घटना
सारे इकट्ठे हैं पटना,
एक नाम बस सूझा है
मोदी मोदी ही रटना
क्या…..
चाँदनी की पाँच परतें,
हर परत अज्ञात है।
एक जल में
एक थल में,
एक नीलाकाश में।
एक आँखों में तुम्हारे झिलमिलाती,
एक मेरे बन रहे विश्वास में।