पत्थर पर कविता: मैं अमर हूँ, तुम समझ जाओगे

पत्थर पर कविता

पत्थर पर कविता

पत्थर हूँ मैं, कठोर हूँ मैं,
अपनी मजबूती में छिपा हूँ मैं।
मेरी कठिनाईयों को तुम समझ न पाओगे,
हर संघर्ष में बचपन से खड़ा हूँ मैं।
जीवन की लहरों ने तोड़ा है मुझे,
खरोंचों से गुज़रा हूँ मैं।
कितना बदलता हूँ, बस रूप बदलता हूँ,
पर मेरी ठोकरों को तुम समझ न पाओगे।
धूप ने सिखाया है मुझे सहना,
बरसातों में रह न पाओगे।
मेरे रंगों का ज़मीन पर छिलना,
यह मेरी कहानी है, तुम समझ न पाओगे।
होंठों पर खटक रही खुशियों की ठिठक,
ना अपनी संगीनता से रो पाओगे।
मैं हाथों की सुन्दरता को संजोता हूँ,
पर मेरी कठिनाइयों को तुम समझ न पाओगे।
मैं विश्राम नहीं लेता, सदैव तैयार हूँ,
दुनिया को थामा हूँ मैं।
एक शिल्पकार की तरह सजाता हूँ,
पर मेरे जीवन को तुम समझ न पाओगे।
पत्थर हूँ मैं, कठोर हूँ मैं,
पर इस कठोरता के भीतर एक रहस्य छुपा है।
हर टुकड़े से जुड़ा हूँ, अनंतता का प्रतीक हूँ,
मैं अमर हूँ, मैं अमर हूँ, तुम समझ जाओगे।
पत्थर पर कविता

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