Maharana Pratap Poem in Hindi
प्रताप की प्रतिज्ञा
गिरि अरावली के तरु के थे
पत्ते–पत्ते निष्कंप अचल
बन बेलि–लता–लतिकाएं भी
सहसा कुछ सुनने को निश्चल।
वह बोल रहा था गरज–गरज
रह–रह कर में असि चमक रही
रव वलित गरजते बादल में
मानो बिजली थी दमक रही।
वह ‘मान’ महा–अभिमनी है
बदला लेगा, ले बल अपार
कटि कस लो अब मेरे वीरो
मेरी भी उठती है कटार।
संदेश यही, उपदेश यही
कहता है अपना देश यही
वीरो दिखला दो आत्म त्याग
राणा का है आदेश यही।
जब तक स्वतंत्र यह देश नहीं
कट सकते हैं नख–केश नहीं
मरने, कटने का क्लेश नहीं
कम हो सकता आवेश नहीं।
परवाह नहीं, परवाह नहीं
मैं हूं फकीर, अब शाह नहीं
मुझको दुनियाँ की चाह नहीं
सह सकता मन की आह नहीं।
यह तो जननी की ममता है
जननी भी सिर पर हाथ न दे
मुझको इसकी परवाह नहीं
चाहे कोई भी साथ न दे।
विष बीज न मैं बोने दूंगा
अरि को न कभी सोने दूंगा
पर कभी कलंकित माता का
मैं दूध नहीं होने दूंगा।
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