हिन्दु महोदधि की छाती में
धधकी अपमानों की ज्वाला,
और आज आसेतु हिमाचल
मूर्तिमान हृदयों की माला।
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सागर की उत्ताल तरंगों में
जीवन का जी भर कृन्दन,
सोने की लंका की मिट्टी
लख कर भरता आह प्रभंजन।
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शून्य तटों से सिर टकरा कर
पूछ रही गंगा की धारा,
सगरसुतों से भी बढ़कर हां
आज हुआ मृत भारत सारा।
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यमुना कहती कृष्ण कहाँ है,
सरयू कहती राम कहाँ है
व्यथित गण्डकी पूछ रही है,
चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ है?
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अर्जुन का गांडीव किधर है,
कहाँ भीम की गदा खो गयी
किस कोने में पांचजन्य है,
कहाँ भीष्म की शक्ति सो गयी?
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अगणित सीतायें अपहृत हैं,
महावीर निज को पहचानो
अपमानित द्रुपदायें कितनी,
समरधीर शर को सन्धानो।
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अलक्षेन्द्र को धूलि चटाने वाले
पौरुष फिर से जागो
क्षत्रियत्व विक्रम के जागो,
चणकपुत्र के निश्चय जागो।
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कोटि कोटि पुत्रो की माता
अब भी पीड़ित अपमानित है
जो जननी का दुःख न मिटायें
उन पुत्रों पर भी लानत है।
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लानत उनकी भरी जवानी पर
जो सुख की नींद सो रहे
लानत है हम कोटि कोटि हैं,
किन्तु किसी के चरण धो रहे।
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ये सुने-
अब तक जिस जग ने पग चूमे,
आज उसी के सम्मुख नत क्यों
गौरवमणि खो कर भी
मेरे सर्पराज आलस में रत क्यों?
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गत गौरव का स्वाभिमान ले
वर्तमान की ओर निहारो
जो जूठा खा कर पनपे हैं,
उनके सम्मुख कर न पसारो।
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पृथ्वी की संतान भिक्षु बन
परदेसी का दान न लेगी
गोरों की संतति से पूछो
क्या हमको पहचान न लेगी?
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हम अपने को ही पहचाने
आत्मशक्ति का निश्चय ठाने
पड़े हुए जूठे शिकार को
सिंह नहीं जाते हैं खाने।
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एक हाथ में सृजन दूसरे में
हम प्रलय लिए चलते हैं
सभी कीर्ति ज्वाला में जलते,
हम अंधियारे में जलते हैं।
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आँखों में वैभव के सपने
पग में तूफानों की गति हो
राष्ट्र भक्ति का ज्वार न रुकता,
आए जिस जिस की हिम्मत हो।
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