आओ मन की गांठें खोलें

आओ मन की गांठें खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले,
घास–फूस का घर डंडे पर,
गोबर से लीपे आँगन मेँ,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर,
माँ के मुंह मेँ रामायण के दोहे चौपाई रस घोलें,
आओ मन की गांठें खोलें।

बाबा की बैठक मेँ बिछी
चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालोँ के मन मेँ
असमंजस, जाऊँ या न जाऊँ?
माथे तिलक, आँख पर अनेक, पोथी खुली स्वयम से बोलें,
आओ मन की गांठें खोलें।

सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा,
मिट्टी ने माथे के चंदन,
बनने का संकल्प न छोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी मेँ, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें,
आओ मन की गांठें खोलें।

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