वैश्य - मैथिलीशरण गुप्त

वैश्य – मैथिलीशरण गुप्त

वैश्यो! सुना, व्यापार सारा मिट चुका है देश का,

सब धन विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का?

अब भी न यदि कर्तव्य का पालन करोगे तुम यहाँ-

तो पास हैं वे दिन कि जब भूखों मरोगे तुम यहाँ!

अब तो उठो, हे बन्धुओ! निज देश की जय बोल दो;

बनने लगें सब वस्तुएँ, कल-कारखाने खोल दो।

जावे यहाँ से और कच्चा माल अब बाहर नहीं-

हो ‘मेडइन’ के बाद बस अब ‘इंडिया’ ही सब कहीं।

है आज भी रत्न-प्रसू वसुधा यहाँ की-सी कहाँ?

पर लाभ उससे अब उठाते हैं विदेशी ही यहाँ!

उद्योग घर में भी अहो! हमसे किया जाता नहीं,

हम छाल-छिलके चूसते हैं, रस पिया जाता नहीं!

शूद्र – मैथिलीशरण गुप्त

वैश्य – मैथिलीशरण गुप्त

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