संघर्ष और सफलता कविता – मंजिलों की क्या हैसीयत
कश्तियां कहाँ मना करती है
तूफानों से टकराने को
वो मांझी ही डर जाता है
अपने आप को आजमाने को
कश्तियां कहाँ मना करती है
तूफानों से टकराने को
वो मांझी ही डर जाता है
अपने आप को आजमाने को
मैं, मैं हूँ
और सदा मैं ही रहूँ !
मैं क्यों खुद को बदलूँ ?
मेरी सोच मेरी है
जानता हूँ, ये खरी है !
ये देश नही बनता केवल खेत-खलिहानों से
पहाड़ो से या मैदानों से
पठारों या रेगिस्तानों से
ये देश बनता है….
यहाँ बसते इंसानों से।
हर समंदर यहाँ सैलाब लिए खड़ा है
मौन-सी लहरों में कुछ रहस्य जड़ा है
आसपास घूमते चेहरों में
एक किस्सा, अपनी एक दास्तां है
सभी एक सफर है
है कुछ न कुछ जो सभी ने सहा है
हर समंदर यहाँ सैलाब लिए खड़ा है।
बदलाव करो, निरंतर करो
पर उसमें कुछ बेहतर करो
बदलाव हो जो जीवन सरल करे
जड़ता को विरल करे
बदलाव अज्ञानता से ज्ञान का
मूढ़ता से विद्यावान का
इन लम्हों को बीतने दे
जो प्रलय उठा है जीवन में उसे थमने दे
यहाँ कुछ भी तो शाश्वत नहीं
फिर किस बात से तू आश्वत नहीं