बदलाव पर कविता – मैं क्यों खुद को बदलूँ
बदलाव पर कविता – मैं क्यों खुद को बदलूँ (सविता पाटिल)
मैं, मैं हूँ
और सदा मैं ही रहूँ !
मैं क्यों खुद को बदलूँ ?
मेरी सोच मेरी है
जानता हूँ, ये खरी है !
मेरा हृदय अनमोल है
कुछ है तो प्रेम ही इसका मोल है !
इसे न लालसा केवल धन की
ना ये मांगे ऐशो आराम
ना इसे चाहत वैभव की !
बस दो वक्त की रोटी
और जिंदगी मिले चैन की !
वो बदले खुद को
जिनके हृदय पाषाण होते है,
जो दिखते तो है जिंदा
पर बेजान होते हैं !
वो बदले, जो जीवित मर्म भाव
जीवन भर नजर-अंदाज करते हैं
और फिर उन्हीं निस्पंद देहों को
श्रद्धांजलि देते है, याद करते हैं !
बदले उन्हें,
जो शामिल हैं चूहों की दौड़ में
आत्मीयता से परे
रुपयों की होड़ में !
मैं खुश हूँ, जो मैं हिस्सा नहीं
किसी प्रतियोगिता का…..
मैं खुश हूँ, जो मुझे प्रमाण….
नहीं देना अपनी योग्यता का !
ऐसा नहीं कि मेरे सपने नहीं
ऐसा भी नहीं कि मेरा कोई ध्येय नहीं !
बस, बात इतनी सी है
मेरे खुश होने की कोई शर्ते नहीं !
दिल इस बात से खुश हो जाता है
कि कभी-कभार कोई मेरे घर आ जाता है
मन ये देखकर मचल उठता है
कि चांद आज भी मेरे झरोखे से दिखता है !
इस भागती-दौड़ती दुनिया में
ढूंढ लेता है दिल मेरा अपनों को
बढ़ती दूरियों में
ये समझता है जरूरत मिलने-मिलाने की,
स्पर्श की भावना मैं जानता हूँ….
चांद को नहीं, मैं इंसानों को छूना चाहता हूँ !
रोज बदलती है दुनिया
पर मैं, मैं ही रहना चाहता हूँ
बाहर कुछ भी दिखे,
पर अपने भीतर
मैं खुद को जिंदा देखना चाहता हूँ !