सुरंग में फंसे मजदूरों की व्यथा – मजदूर पर कविता
मजदूर पर कविता
अब तो निकालिए सुरंग से मुझको,
मुझे अपने घर जाना है
किया था जो वादा परिवार से,
वह वादा निभाना है
निभाना है फर्ज बेटे का,
कर्ज पिता का मुझे चुकाना है
पथरा गई होगी मां की आंखें,
उन्हें ढांढस दिलाना है
पहुंचकर पास पत्नी के
खुशी के आंसू उसे रुलाना है
भाई के इंतजार को,
अब और मैं बड़ा नहीं सकता
बैठा होगा मुहाने पर,
उसे और अब जगा नहीं सकता
बच्चे बिलख रहे हैं घर में
उनको भी गले लगाना है
अब तो निकालिए सुरंग से मुझको,
मुझे अपने घर जाना है
सेंकड़ों कोस चलकर मैं परदेस आया
गांव, घर, परिवार, प्रदेश बिसराया
खून अपना करके पसीना,
दो जून की रोटी पाया
मजदूरी की थी चुकाने को उधारी
खा न जाए यह सुरंग हत्यारी
सुरंग में मरने से अच्छा,
घर भूख से मर जाना है
अब तो निकालिए सुरंग से मुझको
मुझे अपने घर जाना है
सुना है मदद कर रही सरकार
सांत्वना दे रही बारंबार
पर बढ़ता ही जाता इंतजार
जाने क्यों रूठा है परवरदिगार
पशुओं से भी निरीह अवस्था में,
हम इकतालीस ही हैं लाचार
अंधियारे, सीलन और बदबू से
लगता है, हो गया याराना है
अब तो निकालिए सुरंग से मुझको
मुझे अपने घर जाना है
प्रार्थना करें अब आप सब
मशीनें करें सही से काम
कुछ ही मीटर की दूरी है,
वह भी पार लगाए राम
उम्मीदों पर हम जिंदा हैं
भुगत रहे परेशानियां तमाम
मंदिर-मस्जिदों में हो रही प्रार्थना
व्यर्थ ना जाएगी आपकी आराधना
चंद्र और मंगल पर पहुंचने से ज्यादा जरूरी
ज़मीं पर इंसान को बचाना है
अब तो निकालिए सुरंग से मुझको
मुझे अपने घर जाना है
ये भी देखें : रामधारी सिंह दिनकर की मजदूर कविता