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अर्धनारीश्वर – रामधारी सिंह दिनकर – Rashtrakavi Dinkar
एक हाथ में डमरू, एक में वीणा मधुर उदार,
एक नयन में गरल, एक में संजीवन की धार।
जटाजूट में लहर पुण्य की शीतलता-सुख-कारी,
बालचंद्र दीपित त्रिपुंड पर बलिहारी! बलिहारी!
प्रत्याशा में निखिल विश्व है, ध्यान देवता! त्यागो,
बांटो, बांटो अमृत, हिमालय के महान ऋषि! जागो!
फेंको कुमुद-फूल में भर-भर किरण, तेज दो, तप दो,
ताप-तप्त व्याकुल मनुष्य को शीतल चन्द्रातप दो।
सूख गये सर, सरित; क्षारनिस्सीम जलधि का जल है;
ज्ञानघूर्णि पर चढ़ा मनुज को मार रहा मरुथल है।
इस पावक को शमित करो, मन की यह लपट बुझाओ,
छाया दो नर को, विकल्प की इति से इसे बचाओ।
रचो मनुज का मन, निरभ्रता लेकर शरदगगन की,
भरों प्राण में दीप्ती ज्योति ले शांत-समुज्ज्वल घन की।
पदम्-पत्र पर वारि-विन्दु-निम नर का हृदय विमल हो,
कूजित अंतर-मध्य निरन्तर सरिता का कलकल हो।
मही मांगती एक घार, जो सब का हृदय भिंगोये,
अवगाहन कर जहां मनुजता दाह-द्वेष-विष खोये।
मही मांगती एक गीत, जिसमे चांदनी भरी हो,
खिले सुमन, सुन जिसे वल्लरी रातों-रात हरी हो।
मही मांगती, ताल-ताल भर जाये श्वेत कमल से,
मही मांगती, फूल कुमुद के बरसें विधुमंडल से।
मही मांगती, प्राण-प्राण में सजी कुसुम की क्यारी,
पाषाणों में गूंज गीत की, पुरुष-पुरुष में नारी।
लेशमात्र रस नहीं, ह्रदय की पपरी फूट रही है,
मानव का सर्वस्व निरंकुश मेघा लूट रही है।
रचो, रचो शाद्वल, मनुष्य निंज में हरीतिमा पाये,
उपजाओ अश्वत्थ, कलान्त नर जहाँ तनिक सुस्ताये।
भरो भस्म में क्लिन्न अरुणता कुंकुम के वर्णन से,
संजीवन दो ओ त्रिनेत्र! करूणाकर! वाम नयन से।
प्रत्याशा में निखिल विश्व है, ध्यान देवता ! त्यागो,
बांटो, बांटो अमृत, हिमालयके महान ऋषि! जागो!
अर्धनारीश्वर – Rashtrakavi Dinkar
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