मजदूर कविता रामधारी सिंह दिनकर
मैं मजदूर हूँ मुझे देवों की बस्ती से क्या!
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये,
अम्बर पर जितने तारे उतने वर्षों से,
मेरे पुरखों ने धरती का रूप सवारा;
धरती को सुन्दर करने की ममता में,
बीत चुका है कई पीढियां वंश हमारा Ι
अपने नहीं अभाव मिटा पाए जीवन भर,
पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता हूँ;
युगों-युगों से इन झोपडियों में रहकर भी,
औरों के हित लगा हुआ हूँ महल सजाने Ι
ऐसे ही मेरे कितने साथी भूखे रह,
लगे हुए हैं औरों के हित अन्न उगाने;
इतना समय नहीं मुझको जीवन में मिलता,
अपनी खातिर सुख के कुछ सामान जुटा लूँ
पर मेरे हित उनका भी कर्तव्य नहीं क्या?
मेरी बाहें जिनके भरती रहीं खजाने;
अपने घर के अन्धकार की मुझे न चिंता,
मैंने तो औरों के बुझते दीप जलाये Ι
मैं मजदूर हूँ मुझे देवों की बस्ती से क्या?
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये Ι
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