Ram Avtar Tyagi Poems Hindi
Ram Avtar Tyagi Poems Hindi
आँचल बुनते रह जाओगे
मैं तो तोड़ मोड़ के बन्धन,
अपने गाँव चला जाऊँगा,
तुम आकर्षक सम्बंधों का,
आँचल बुनते रह जाओगे।
मेला काफी दर्शनीय है
पर मुझको कुछ जमा नहीं है,
इन मोहक कागजी खिलौनों में
मेरा मन रमा नहीं है।
मैं तो रंग मंच से अपने
अनुभव गाकर उठ जाऊँगा
लेकिन, तुम बैठे गीतों का
गुँजन सुनते रह जाओगे।
आँसू नहीं फला करते है,
रोने वाले क्यों रोता है?
जीवन से पहले पीड़ा का
शायद अन्त नहीं होता है।
मै तो किसी सर्द मौसम की
बाहों में मुरझा जाऊँगा
तुम केवल मेरे फूलों को
गुमसुम चुनते रहे जाओगे।
मुझको मोह जोड़ना होगा,
केवल जलती चिंगारी से।
मुझसे सन्धि नहीं हो पाती
जीवन की हर लाचारी से।
मैं तो किसी भँवर के कन्धे
चढ़कर पार उतर जाऊँगा,
तट पर बैठे इसी तरह से
तुम सिर धुनते रह जाआगे।
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
इक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैंने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बर्बाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन में बस मौत से ज़्यादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है
देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है
मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
तूने जो दर्द दिया उसकी क़सम खाता हूं
इतना ज़्यादा है कि एहसां से दबा जाता हूं
मेरी तक़दीर बता और तक़ाज़ा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
मैंने जज़्बात के संग खेलते दौलत देखी
अपनी आँखों से मोहब्बत की तिजारत देखी
ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रक्खा क्या है
ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है
आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है
पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है
आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है
आदमी का आकाश
भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है
आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है।
हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक
और सीमाएँ सिकुड़कर आ गईं घर की छतों तक
प्यार करने का तरीका तो वही युग–युग पुराना
आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है।
आदमी की शोर से आवाज़ नापी जा रही है
घण्टियों से वक़्त की परवाज़ नापी जा रही है
देश के भूगोल में कोई बदल आया नहीं है
हाँ, हृदय का आजकल इतिहास छोटा हो गया है।
यह मुझे समझा दिया है उस महाजन की बही ने
साल में होते नहीं हैं आजकल बारह महीने
और ऋतुओं के समय में बाल भर अन्तर न आया
पर न जाने किस तरह मधुमास छोटा हो गया है।
ज़िंदगी एक रस
ज़िंदगी एक रस किस क़दर हो गई
एक बस्ती थी वो भी शहर हो गई
घर की दीवार पोती गई इस तरह
लोग समझें कि लो अब सहर हो गई
हाय इतने अभी बच गए आदमी
गिनते-गिनते जिन्हें दोपहर हो गई
कोई खुद्दार दीपक जले किसलिए
जब सियासत अंधेरों का घर हो गई
कल के आज के मुझ में यह फ़र्क है
जो नदी थी कभी वो लहर हो गई
एक ग़म था जो अब देवता बन गया
एक ख़ुशी है कि वह जानवर हो गई
जब मशालें लगातार बढ़ती गईं
रौशनी हारकर मुख्तसर हो गई
तन बचाने चले थे
तन बचाने चले थे कि मन खो गया
एक मिट्टी के पीछे रतन खो गया
घर वही, तुम वही, मैं वही, सब वही
और सब कुछ है वातावरण खो गया
यह शहर पा लिया, वह शहर पा लिया
गाँव का जो दिया था वचन खो गया
जो हज़ारों चमन से महकदार था
क्या किसी से कहें वह सुमन खो गया
दोस्ती का सभी ब्याज़ जब खा चुके
तब पता यह चला, मूलधन ही खो गया
यह जमीं तो कभी भी हमारी न थी
यह हमारा तुम्हारा गगन भी अब खो गया
हमने पढ़कर जिसे प्यार सीखा था कभी
एक गलती से वह व्याकरण भी खो गया
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