अज्ञेय की कविताएं

अज्ञेय की कविताएं

रुकेंगे तो मरेंगे

सोचने से बचते रहे थे, अब आयी अनुशोचना।
रूढिय़ों से सरे नहीं (अटल रहे तभी तो होगी वह मरजाद!)
अब अनुसरेंगे-नाक में नकेल डाल जो भी खींच ले चलेगा

उसी को! चलो, चलो, चाहे कहीं चलो, बस बहने दो :
व्यवस्था के, शान्ति, आत्मगौरव के, धीरज के
ढूह सब ढहने दो-बुद्धि जब जड़ हो तो
मांस-पेशियों की तड़पन को

जीवन की धड़कन मान लें-
(जब घोर जाड़े में
कम्बल का सम्बल न होता पास
तब हम जबड़े की किटकिट ही से बाँधते हैं आस
कुछ गरमाई की!)

भागो, भागो, चाहे जिस ओर भागो
अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहाँ-
रुकेंगे तो मरेंगे!

अज्ञेय की कविताएं

कहती है पत्रिका

कहती है पत्रिका
चलेगा कैसे उन का देश?
मेहतर तो सब रहे हमारे

हुए हमारे फिर शरणागत-
देखें अब कैसे उन का मैला ढुलता है!
‘मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणगत।’

अगर वहीं के वे हो जाते
पंगु देश के सही, मगर होते आज़ाद नागरिक।
होते द्रोही!
यह क्या कम है यहाँ लौट कर

जनम-जनम तक जुगों-जुगों तक
मिले उन्हें अधिकार, एक स्वाधीन राष्ट्र का
मैला ढोवें?

अज्ञेय की कविताएं

जीवन का मालिन्य

जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ?
उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?

कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह-
जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह?

विश्व-नगर की गलियों में खोये कुत्ते-सा
झंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-सा

हटो, आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट-
भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!

अज्ञेय की कविताएं

उधार

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।

मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार
चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?
मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी—
तिनके की नोक-भर?
शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—
किरण की ओक-भर?
मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,
लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैने आकाश से मांगी
आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।

सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।
यों मैं जिया और जीता हूँ
क्योंकि यही सब तो है जीवन—
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,
गन्धवाही मुक्त खुलापन,
लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का:
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।

रात के अकेले अन्धकार में
सामने से जागा जिस में
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर
मुझ से पूछा था: “क्यों जी,
तुम्हारे इस जीवन के
इतने विविध अनुभव हैं
इतने तुम धनी हो,
तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं
सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा—
और वह भी सौ-सौ बार गिन के—
जब-जब मैं आऊँगा?”
मैने कहा: प्यार? उधार?
स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार ।
उस अनदेखे अरूप ने कहा: “हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—
यह अकेलापन, यह अकुलाहट,
यह असमंजस, अचकचाहट,
आर्त अनुभव,
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
विरह व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना
कि जो मेरा है वही ममेतर है
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार—
मुझे जो चरम आवश्यकता है।

उस ने यह कहा,
पर रात के घुप अंधेरे में
मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:
अनदेखे अरूप को
उधार देते मैं डरता हूँ:
क्या जाने
यह याचक कौन है?

अज्ञेय की कविताएं

जो रचा नहीं

दिया सो दिया
उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं।
पर अब क्या करूँ
कि पास और कुछ बचा नहीं
सिवा इस दर्द के
जो मुझ से बड़ा है—इतना बड़ा है कि पचा नहीं—
बल्कि मुझ से अँचा नहीं—
इसे कहाँ धरूँ
जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ
क्योंकि वह तो एक सच है
जिसें मैं तो क्या रचता—
जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं!

अज्ञेय की कविताएं

मन बहुत सोचता है

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घासों में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदीः पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

रामधारी सिंह दिनकर – कविता संग्रह

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