Ramdhari Singh Dinkar Poems – रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध कविताएं

Ramdhari Singh Dinkar Poems– रामधारी सिंह ‘दिनकर’, जिन्हें हिंदी साहित्य के ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में जाना जाता है, एक प्रमुख हिंदी कवि थे। उनका जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के सिमरा में हुआ था और उनका निधन 24 अप्रैल 1974 को हुआ। दिनकर ने अपनी कविताओं में राष्ट्रीय उत्कृष्टता, साहस, और स्वाधीनता के गौरवपूर्ण विषयों को उजागर किया।

उनका काव्य सौंदर्यपूर्ण, ऊर्जावान, और प्रेरणादायक है। दिनकर ने अपनी कविताओं में भारतीय इतिहास, सांस्कृतिक विरासत, और राष्ट्रीय भावनाओं को बहुत ही उत्कृष्टता से झलकाया।

जियो जियो अय हिन्दुस्तान..

जाग रहे हम वीर जवान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम प्रभात की नई किरण हैं,
हम दिन के आलोक नवल,
हम नवीन भारत के सैनिक,
धीर, वीर, गंभीर, अचल।

हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के,
सुरभि स्वर्ग की लेते हैं।
हम हैं शान्तिदूत धरणी के,
छाँह सभी को देते हैं।

वीर-प्रसू माँ की आँखों के
हम नवीन उजियाले हैं
गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के
हम रखवाले हैं।

तन मन धन तुम पर कुर्बान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम सपूत उनके जो नर थे
अनल और मधु मिश्रण,
जिसमें नर का तेज प्रखर था,
भीतर था नारी का मन!

एक नयन संजीवन जिनका,
एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में
उतना ही अंतर कोमल।

थर-थर तीनों लोक काँपते थे
जिनकी ललकारों पर,
स्वर्ग नाचता था रण में
जिनकी पवित्र तलवारों पर

हम उन वीरों की सन्तान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

हम शकारि विक्रमादित्य हैं
अरिदल को दलनेवाले,
रण में ज़मीं नहीं,
दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।

हम अर्जुन, हम भीम,
शान्ति के लिये जगत में जीते हैं
मगर, शत्रु हठ करे अगर तो,
लहू वक्ष का पीते हैं।

हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ
भले घास की खाएंगे,
मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे
मस्तक नहीं झुकायेंगे।

देंगे जान, नहीं ईमान,
जियो जियो अय हिन्दुस्तान।

जियो, जियो अय देश!
कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।
वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी
में ही लगे हुए हैं हम।

हिन्द-सिन्धु की कसम,
कौन इस पर जहाज ला सकता।
सरहद के भीतर कोई दुश्मन
कैसे आ सकता है?

पर की हम कुछ नहीं चाहते,
अपनी किन्तु बचायेंगे,
जिसकी उँगली उठी उसे
हम यमपुर को पहुँचायेंगे।

हम प्रहरी यमराज समान
जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

सच है, विपत्ति जब आती है..

सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।

गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।

पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।

वसुधा का नेता कौन हुआ?
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विघ्न सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

मंजिल दूर नहीं है..

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

चिनगारी बन गई लहू की बूँद गिरी जो पग से;
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण – चिह्न जगमग – से।
शुरू हुई आराध्य-भूमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं, क्यों पड़ने डगमग – से?

बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थककर बैठ गयें क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से हॄदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेय है शेष किसी विधि पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।

आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है,
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्तकर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलायेगी ही,
अम्बर पर घन बन छायेगा ही उच्छवास तुम्हारा।

और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गयें क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।

रह जाता कोई अर्थ नहीं..

नित जीवन के संघर्षों से

जब टूट चुका हो अन्तर्मन,
तब सुख के मिले समन्दर का
रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

जब फसल सूख कर जल के बिन
तिनका-तिनका बन गिर जाये,
फिर होने वाली वर्षा का
रह जाता कोई अर्थ नही।।

सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन
यदि दुःख में साथ न दें अपना,
फिर सुख में उन सम्बन्धों का
रह जाता कोई अर्थ नही।।

छोटी-छोटी खुशियों के क्षण
निकले जाते हैं रोज़ जहाँ,
फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का
रह जाता कोई अर्थ नही।।

मन कटुवाणी से आहत हो
भीतर तक छलनी हो जाये,
फिर बाद कहे प्रिय वचनों का
रह जाता कोई अर्थ नही।।

सुख-साधन चाहे जितने हों
पर काया रोगों का घर हो,
फिर उन अगनित सुविधाओं का
रह जाता कोई अर्थ नही।।

समर शेष है..

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।

वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,

कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।

समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।

तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

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