मैं अकेला – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला।
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला।
यह सच है-
तुमने जो दिया दान दान वह,
हिन्दी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है–
भिक्षुक
वह आता–
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को