आ रही रवि की सवारी – हरिवंश राय बच्चन
नव-किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी।
आ रही रवि की सवारी।
नव-किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी।
आ रही रवि की सवारी।
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी
मांग मत, मांग मत, मांग मत
तुमने न बना मुझको पाया,
युग-युग बीते, मैं न घबराया;
भूलो मेरी विह्वलता को,
निज लज्जा का तो ध्यान करो!
इस पार, प्रिये, मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का
यहाँ सब कुछ बिकत है,
दोस्तों रहना जरा संभाल के!
बेचने वाले हवा भी बेच देते है,
गुब्बारों में डाल के!!
हारना तब आवश्यक हो जाता है,
जब लड़ाई “अपनों” से हो।
और जीतना तक आवश्यक हो जाता है,
जब लड़ाई अपने आप से हो।
न तुम सो रही हो, न मैं सो रहा हूँ,
मगर यामिनी बीच में ढल रही है।
दिखाई पड़े पूर्व में जो सितारे,
वही आ गए ठीक ऊपर हमारे,
क्षितिज पश्चिमी है बुलाता उन्हें अब,
न रोके रुकेंगे हमारे-तुम्हारे
गीले बादल, पीले रजकण,
सूखे पत्ते, रूखे तृण घन
लेकर चलता करता ‘हरहर’–इसका गान समझ पाओगे?
तुम तूफान समझ पाओगे?
सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
1. दीप अभी जलने दे, भाई!
2. मुझ से चाँद कहा करता है
3. विश्व सारा सो रहा है!
4. तूने क्या सपना देखा है?