जब भाषण देते समय अटल जी ने वीर सावरकर की तारीफ़ में जो बात कही सुन कर सब चौंक गये थे 

उन्होंने कहा - सावरकर माने तेज, सावरकर माने त्याग, सावरकर माने तप, सावरकर माने तत्व, 

सावरकर माने तर्क, सावरकर माने तारुण्य, सावरकर माने तीर, सावरकर माने तलवार, 

सावरकार माने तिलमिलाहट... सागरा प्राण तड़मड़ला, तड़मड़ाती हुई आत्मा, सावरकर माने तितीक्षा, 

सावरकर माने तीखापन, सावरकर माने तिखट। कैसा बहुरंगी व्यक्तित्व! 

कविता और क्रांति! कविता और भ्रांति तो साथ-साथ चल सकती है, लेकिन कविता और क्रांति का साथ चलना बहुत मुश्किल है। 

कविता माने कल्पना, शब्दों के संसार का सृजन, ऊंची उड़ान। कभी-कभी ऊंची उड़ान में धरातल से पांव उठ जाएं, 

वास्तविकता से नाता टूट जाए तो कवि को इसकी शिकायत नहीं होगी। उसके आलोचक भी इस बात के लिए टीका नहीं करेंगे। 

मगर सावरकर जी का कवि ऊंची से ऊंची उड़ान भरता था, 

मगर उन्होंने यथार्थ की धरती से कभी नाता नहीं तोड़ा। सावरकर जी में ऊंचाई भी थी और गहराई भी थी।